इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत: |
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते || 19||
इति–इस प्रकार; क्षेत्रम्-क्षेत्र की प्रकृति; तथा—और; ज्ञानम्-ज्ञान का अर्थ; ज्ञेयम्-ज्ञान का विषय; च-और; उक्तम्-प्रकट करना; समासतः-संक्षेप में; मत्-भक्त:-मेरा भक्त; एतत्-यह सब; विज्ञाय-जान कर; मत्-भावाय-मेरी दिव्य प्रकृति; उपपद्यते-प्राप्त करता है।
BG 13.19: इस प्रकार मैंने तुम्हें कर्म क्षेत्र की प्रकृति, ज्ञान का अर्थ और ज्ञान के लक्ष्य का ज्ञान कराया है। इसे वास्तव में केवल मेरे भक्त ही पूर्णतः समझ सकते हैं और इसे जानकर वे मेरी दिव्य स्वरूप को प्राप्त होते हैं।
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श्रीकृष्ण अपने कथनों का समापन इस विषय को समझने के परिणामों का उल्लेख करते हुए करते हैं। अतः एक बार पुनः वह भक्ति की श्रेष्ठता बताते हैं और कहते हैं कि केवल मेरे भक्त ही वास्तव में इस ज्ञान को समझ सकते हैं। वे जो भक्ति रहित होकर कर्म, ज्ञान, अष्टांग योग आदि का पालन करते हैं वे भगवद्गीता के अर्थ को नहीं समझ सकते। भक्ति भगवान की ओर ले जाने वाले सभी मार्गों का आवश्यक अंग हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने इसका सुन्दर निरूपण इस प्रकार से किया है-
जो हरि सेवा हेतु हो, सोई कर्म बखान।
जो हरि भगति बढ़ावे, सोई समुझिय ज्ञान।।
(भक्ति शतक-66)
"भगवान की भक्ति के लिए किया गया प्रत्येक कार्य ही वास्तविक कर्म है और जो भगवान के लिए प्रेम बढ़ाता है वही सच्चा ज्ञान है।" भक्ति केवल भगवान को जानने में ही हमारी सहायता नहीं करती बल्कि यह भक्त को भगवान जैसा बना देती है। इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्त मेरी प्रकृति को जान लेते हैं। वैदिक ग्रंथों में भी बार-बार इस पर बल दिया गया है। वेदों में वर्णन है-
भक्तिरेवैनम् नयति भक्तिरेवैनम् पश्यति भक्तिरेवैनम्
दर्शयति भक्तिवशः पुरुषः भक्तिरेव भयसि (माथर श्रुति)
"केवल और केवल शुद्ध भक्ति ही भगवान की ओर ले जा सकती है। केवल भक्ति द्वारा ही हम भगवान को देख सकते हैं। भक्ति ही हमें भगवान के सम्मुख ले जा सकती है। भगवान क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग भक्ति के अधीन हैं इसलिए केवल भक्ति करो। आगे मुण्डकोपनिषद् में इस प्रकार से वर्णन किया गया है
उपासते पुरुषम् ये ह्याकामास्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः (3.2.1)
"वे जो परमपुरुषोत्तम भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं और सभी लौकिक कामनाओं का त्याग कर देते हैं वे जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।" श्वेताश्वतरोपनिषद् में पुनः वर्णन किया गया है
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था प्रकाशन्ते महात्मनः।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.23)
"वे जो धैर्यपूर्वक भगवान की भक्ति करते हैं और समान रूप से गुरु की भी भक्ति करते हैं। ऐसे संत पुरूषो के हृदय में भगवान की कृपा से वैदिक ग्रंथों का ज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है।" अन्य वैदिक ग्रंथ भी इसे दृढ़तापूर्वक दोहराते हैं-
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता ।।
(श्रीमद्भागवतम्-11.14.20)
श्रीकृष्ण कहते हैं, "उद्धव! मुझे अष्टांग योग, सांख्य दर्शन के अध्ययन, धार्मिक ग्रंथों के ज्ञान को पोषित करने, तपस्या और विरक्ति द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। केवल एक भक्ति द्वारा ही मुझे कोई जीत सकता है।" भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने श्लोक 8.22, 11.54 इत्यादि में इसे दोहराया है। 18वें अध्याय के 55वें श्लोक में वे कहते हैं-"केवल प्रेममयी भक्ति से ही कोई यह जान सकता है कि मैं वास्तव में क्या हूँ? भक्ति द्वारा मेरे स्वरूप को जानने के पश्चात् ही कोई मेरे दिव्य क्षेत्र में प्रवेश पा सकता है।" रामचरितमानस में भी वर्णन किया गया है-
रामहि केवल प्रेम पियारा, जान लेऊ जो जाननिहारा
"पप्रभु श्रीराम केवल प्रेम द्वारा प्राप्त होते हैं। इस सत्य को वही जानते हैं जो इसे वास्तव में जानना चाहते हैं।" इस सिद्धान्त को अन्य सम्प्रदायों में भी इसी प्रकार से महत्व दिया गया है। यहूदी टोराह में लिखा है-“तुम भगवान से प्रेम करो, पूर्ण रूप से अपने हृदय, अपनी आत्मा और अपनी पूर्ण सामर्थ्य से।" नाज़ारेथ के जीसस ने क्रिश्चियन 'न्यू टेस्टामेन्ट' में इस आज्ञा को सबसे महत्वपूर्ण आज्ञा के रूप में पालन करने के लिए दोहराया है (मार्क 12.30)। गुरुग्रंथ साहिब में वर्णन किया गया है-
हरि सम जग महान वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सों पंथ।
सद्गुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रंथ।।
"भगवान के समान कोई व्यक्तित्त्व नहीं है। भक्ति के मार्ग के समान कोई अन्य मार्ग नहीं है, कोई भी मनुष्य गुरु के बराबर नहीं है और किसी भी ग्रंथ की तुलना गीता से नहीं की जा सकती।"